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Friday, April 29, 2011

अगर परिवार में सुख-शांति चाहिए...

हम अपने परिवारों में भौतिक सुविधाओं को जितना जुटाएं उससे कुछ अधिक प्रेम और श्रद्धा को भी भरें। हर घर में बड़े-बूढ़े होते हैं। अब जो बुढ़ापा आ रहा है उसे धन-दौलत, सुख-सुविधा से ज्यादा, समय की जरूरत है। वे चाहते हैं कुछ पल परिवार के सदस्य उनके पास बैठे।

छोटे बच्चों पर प्रेम करना आसान है परन्तु घर के वृद्धों पर प्रेम करना बड़ा कठिन हो जाता है। घर की युवा और प्रौढ़ पीढ़ी के रूप में आप चाहेंगे कि वृद्ध आपकी आग्या माने। क्योंकि इस समय आप उनका लालन-पालन कर रहे होते हैं। कई वृद्ध समझ नहीं पाते और वे चाहते हैं आग्या तोड़ें, क्योंकि आग्या मनवाने में नई पीढ़ी के अहंकार की तृप्ति है और आग्या तोडऩे में बीत रही पीढ़ी के अहंकार की तृप्ति है। बूढ़ों को कभी-कभी लगने लगता है हमारे बच्चों का प्रेम एक धोखा है, प्रेम के नाम पर आप बच्चे का शोषण कर रहे हैं।

बड़े अपने बच्चों से प्रेम करें तो समझ लें कोई बड़ी बात नहीं है, महत्व की बात तब होती है जब बच्चे बड़ों के प्रति प्रेम से भर जाएं। यह तभी सम्भव है जब हमारे परिवार का मूल चित्त श्रद्धा से भरा हो। इसलिए परिवार के आधार में, परिवार का प्रत्येक सदस्य श्रद्धा और प्रेम से भरा रहे। तभी दोनों पीढिय़ां एक-दूसरे से प्रेम से जुड़े रहेंगे, आदर और सम्मान बना रहेगा।

हर संतान को यह लग रहा है कि जो हम सीख रहे हैं वह हमने हमारे मात-पिता से नहीं सीखा, मैंने खुद अर्जित किया है। इसलिए आजकल लोग घर के बड़े-बूढ़ों के पास नहीं बैठते, क्योंकि उन्हें जो चाहिए वे मानते हैं पहले से हमारे पास है लेकिन वे भूल जाते हैं बूढ़ी सांसें भी आशीर्वाद से भरी रहती है। जरा सा आशीर्वाद इसका मिल जाए तो भविष्य उज्जवल हो सकता है, जीवन संवर सकता है।

मौत को समझ लें ...........

जीवन मिला है तो मृत्यु तय है। दुनिया की सबसे तयशुदा घटना है मौत। हम जीवनभर बहुत सारी ऊर्जा उन बातों पर लगाते हैं जो तय नहीं हैं। जो अस्पष्ट है, ना ही भरोसे का है हमारी इच्छाएं उसी की ओर दौड़ती हैं। इच्छाएं और वासनाएं जितनी हावी होंगी हमारी गुप्त शक्तियां प्रकट होने में उतनी ही देर लगेगी।

जितना हम गुप्त शक्तियों को जाग्रत कर लेंगे उतना हम मृत्यु को जान लेंगे। अब सवाल यह उठता है कि मौत को जानना क्या जरूरी है, जब आएगी तब आएगी और उसके बाद किसने देखा, क्या हुआ? एक वर्ग इस सिद्धांत से जीवन जीता है और दूसरा वर्ग है भयभीत लोगों का। ये जीवन को मौत के भय में गुजारते हैं। जरा बारीकी से देखें तो दोनों ही तरीके के लोगों का परिणाम एक सा है। मौत का भय या मृत्यु का अज्ञान, दोनों एक जैसे नतीजे देते हैं।

तीसरा तरीका है मृत्यु का ठीक से परिचय कर लेना। जिसने मौत को जान लिया उसने फिर जीवन होश में जी लिया। जीवन अशांत, उदास, उबाऊ और थका हुआ इसीलिए लगता है कि हम सबसे सुनिश्चित घटना के प्रति होश में नहीं हैं। ये बेहोशी अगले जन्म तक परिणाम देगी। हम जो आज हैं वह पीछे से आया और लाया हुआ है।

इसीलिए संतों का उनके जन्म पर पूरा अधिकार होता है और सामान्यजन का जन्म वश में नहीं होता। कहां, कब पैदा होना यह वश के बाहर है, लेकिन दिव्य पुरुष इस मामले में कन्फर्म बर्थ-डेथ वाले होते हैं। हम भी मृत्यु से परिचय ले सकते हैं। तीन तरीके हैं गुरुकृपा, सत्संग और ध्यान। इन तीनों के माध्यम से जो मृत्यु को जान लेगा फिर वो जीवन को भी पूरी मस्ती से जी लेगा।

कर्म जरुरी है .........

किसी ने सत्य ही कहा है कि किस्मत और कुछ नहीं बल्कि कामचोर लोगों का पसंदीदा बहाना है।


कुछ लोग होते हैं जो पूरी तरह से भाग्य पर ही निर्भर रहते हैं।


न तो वह कभी अपने काम में सुधार लाते हैं और न ही कुछ अलग करने की कोशिश करते हैं।


उन्हें हमेशा यही लगता है कि जब जो चीज किस्मत में होगी मिल जाएगी।


और यदि किस्मत में नहीं होगी तो नहीं मिलेगी। उनकी यही सोच उन्हें तरक्की नहीं करने देती


और वे हर बात के लिए अपनी किस्मत को दोष देते हैं।

चिता जल उठे इससे पहले अपनी चेतना जगा लेना.........

सांझ होने से पहले एक छोटा–सा दीपक जला लेना है।

सांझ तो होगी ही, होनी ही है।

अंधेरा तो घिरेगा ही,

लेकिन दीप हाथ में हो तो अंधेरी रात में भी बीहड़ घाटियां सुगमता से पार की जा सकती है।

यहां सांझ से तात्पर्य मृत्यु से है और दीपक से तात्पर्य धर्म–ध्यान से है।

यदि जीवन में धर्म–ध्यान हो तो मृत्यु भी शुभ हो जाती है।

चिता जल उठे इससे पहले अपनी चेतना जगा लेना।

जो चिता जलने से पहले अपनी चेतना जगा लेते हैं, फिर उनकी चिता कभी नहीं जलती।

वो चिरंतन हो जाते हैं। चेतना जागती है धर्म–ध्यान से।

सीने में जलन आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है....

सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है. इस शहर में हर शख़्स परेशान-सा क्यूं है..

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढे, आईना हमें देख के हैरान-सा क्यूं

है. सीने में जलन आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है.’

पिछले 25 सालों में इस गाने की शाश्वतता में कोई बदलाव नहीं आया.

हां, जो बदलाव आया है, वो ये कि अब इसके भाव सिर्फ महानगरों तक सीमित नहीं हैं.

अब छोटे शहरों में बसने वाले लोग भी इस गाने के मर्म को बखूबी महसूस करने लगे हैं

और अपनी जिंदगी को बेरंग होता देखकर शायद ही कुछ कर पाने की स्थिति में हैं.

परिवार बचा नहीं है.....

जरा याद कीजिए, पिछली बार कब हमसे किसी ने अपनी मां, पिता, पत्नी, बेटे या बेटी के साथ बैठकर बेतरती की गप मारी थी. कब हममें से किसी ने ये जानने की कोशिश की थी कि वो बहन, जो अपने घर में अपने पारिवारिक उलझनों के बीच राखी की डोर हमें बांधती है, उसका घर कैसे चल रहा है. वो भाई, जिसकी बीवी काम के सिलसिले में किसी दूसरे शहर कुछ दिनों के लिए गई है, उसके बच्चे कैसे घर पर अपना काम कर रहे हैं. फोन पर ही बेटे की आवाज सुनकर दिनभर खुशी से गाने गुनगुनाने वाली मां से कब हममें से किसी ने ये पूछा कि पैरों के जोड़ का दर्द ज्यादा तो नहीं. हम ये सब नहीं पूछते. हां, हम ये जरूर कहते हैं कि आज के जमाने में परिवार बचा नहीं है.

सच्चा दोस्त ......

हमारे मन का स्वभाव ऐसा है कि वह मीठा बोलने वालों को ही ज्यादा पंसंद करता है। अच्छे-बुरे से मन को कुछ लेना-देना नहीं। असली दोस्त की पहचान में भी इसी कारण से इंसान से भूल हो जाती है। व्यक्ति मीठा बोलने वाले मनोरंजक व्यक्ति को ही अपना पक्का दोस्त समझ बैठते हैं, जबकि असलियत में ऐसा कुछ होता नहीं। इस विषय में कबीरदास जी ने बहुत सही बात कही है- निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटि छवाय।

बिन साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।।

इसीलिये कहते हैं सच्चा दोस्त उस निदंक की तरह होता है जो अच्छाईयों पर आपकी तारीफ के साथ साथ आपकी बुराईयों को सामने लाकर उनको दूर करने में आपकी मदद करता है।

MAA--BAAP

Maa ki god,Pita ka sar pe hath

yaad aa raha h sab ek sath

Rote rote wo maa se lipat jana

Aansuo k sang houle se muskrana

yad aata h maa ka awaz lagana

chupke se aangan me daud k ana

Wo maa ka apne hathon se roti khilana

pita ki unglee pakad k ghumne Jana

Zid me jam k shor machana

ruthna,machalna maa ko satana

Ab na koi zid h na ruthna manana

bhul gaye h hum wo muskurana

Sabhyata ki aad me ye hum kahan kho gaye.

lagta h ab hum bade ho gaye

Thursday, April 28, 2011

प्रकृति , विकृति ,संस्कृति........

मनुष्य के तीन स्वभाव है :
(1) प्रकृति
(2) विकृति
(3) संस्कृति।


भूख लगे तो खाना प्रकृति है। भूख नहीं लगे तब भी खाना विकृति है और स्वयं भूखे रहकर दूसरों को खिलाना संस्कृति है। भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवतुल्य माना गया है, लेकिन आज के मनुष्य की भूख तो इतनी बढ़ गई है वह संस्कृति को ही खाना चाहता है। पहले जब आदमी जंगली था, तो कंदमूल खाता था। फिर जब थोड़ा समझदार हुआ तो अन्न खाने लगा। अब सभ्य हुआ तो रुपए को ही खाने लगा। याद रखना, भूख भोजन से मिटती है, रुपए से नहीं। जो दूसरों की भूख मिटाता है, वह कभी भूखा नहीं रहता। जो प्यासे को पानी पिलाता है, वह कभी प्यासा नहीं रहता।

बच्चों को संस्कार देने की उम्र क्या हो .....

एक निश्चित उम्र गुजरने के बाद बच्चों को संस्कार दे पाना कठिन हो जाता है..
एक महिला अपने बच्चे को लेकर आइंस्टीन के पास पहुंची और उनसे पूछा– मैं इसे पढ़ाना चाहती हूं, कब से पढ़ाना शुरू करूं? आइंस्टीन ने पूछा – इसकी उम्र क्या है? महिला ने बताया – पांच वर्ष। आइंस्टीन ने कहा – बहन! तुम बहुत लेट हो गई। अब तक तो इसकी पढ़ाई पूरी हो जानी चाहिए थी, क्योंकि संस्कार तो पांच साल की उम्र तक ही दिए जा सकते हैं।

धन का स्थान...

धन मंजिल नहीं, मार्ग है। धन तो हाथ का मैल है। उस पर जीवन न्यौछावर करना निरी मूर्खता है।धन का जीवन में वही स्थान होना चाहिए, जो शरीर में जूतों का होता है। और धर्म का वह स्थान होना चाहिए, जो शरीर में टोपी का होता है। धर्म सिर की टोपी है और धन पांव का जूता। यही सूत्र मानकर धन का संग्रह करना और धर्म का पालन करना।

मक्खीचूस, कंजूस, उदार और दाता की परिभाषा...

जो न खुद खाता है, न दूसरा को खिलाता है, वह मक्खीचूस है। जो खुद तो खाता है, लेकिन दूसरों को नहीं खिलाता है, वह कंजूस है। जो स्वयं भी खाता है, दूसरों को भी खिलाता है, वह उदार है तथा जो स्वयं न खाकर दूसरों को खिला देता है, वह दाता है। दाता दुनिया का सबसे समझदार इंसान है और कंजूस सबसे बड़ा मूर्ख है। वह धन का मालिक नहीं, गुलाम होता है। मैं धन का विरोधी नहीं हूँ। मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ कि धन का जो स्थान है, उसे उसी स्थान पर रखना चाहिए। जूता पांवों के लिए आवश्यक चीज है। कांटे न चुभें, कंकर न चुभें, चोट न लगे, पांव न जले , इसके लिए जूता होना चाहिए, मगर जूते पांवों के लिए हैं, सिर पर रखकर घूमने के लिए नहीं। यदि कोई जूता सिर पर रखकर घूमने लगे तो आप उसे क्या कहेंगे? मूर्ख! और धन जो जीवन का साधन है उसे साध्य मान लिया जाए तो क्या समझदारी होगी? और कुछ लोग धन को जीवन से भी महत्वपूर्ण मानते हैं।

वैतरणी नदी क्या है ...

जब कोई मर जाता है तो उसे वैतरणी नदी पार करनी पड़ती है। वैतरणी नदी का क्या अर्थ है? वैतरणी शब्द वितरण से बना है और वितरण का अर्थ है – बाँटना, दान देना। अर्थ हुआ – जो दूसरों को दान देगा, वह वैतरणी नदी के पार उतर पायेगा। गाय की पूंछ पकड़कर नहीं, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं। दान द्वारा ही वैतरणी तर पाना संभव है। कलयुग में दान ही कल्याणकारी है।

धर्म क्या है......

धर्म कोई पूजा की वस्तु नहीं, वह तो जीने की कला है। धर्म वह है जो जीया जाता है। जो जीया नहीं जाता, वह धर्म नहीं है। धर्म का अर्थ जीवन की समग्रता को धारण करना है। धर्म आनंद की यात्रा हैं धर्म की यात्रा स्वयं को ही तय करनी पड़ती है। अपने ही पांवों से, अपने ही भावों से। दूसरों की बैसाखियां काम नहीं आयेंगी, दूसरों के कंधे काम नहीं आयेंगे। लोग हेमकुन्ट साहिब की यात्रा करने जाते हैं, डोलियां कर लेते हैं। डोलियों पर बैठकर यात्रा करते हैं, लेकिन धर्म की यात्रा, मोक्ष की यात्रा किसी डोली पर नहीं हो सकती। किसी के कंधों पर चढ़कर जीवन की मंजिल तक पहुँच पाना असंभव है। कंधों पर तो मुर्दे को लाया जाता है, वह भी मरघट तक! दूसरों के कंधों पर चढ़कर मरघट से आगे जाया भी तो नहीं जा सकता।

मत चुको चौहान.................

सामान्यत: सभी को जीवन में सफलता और सुख के लिए कई मौके मिलते हैं। कुछ लोग सही अवसर को पहचान कर उससे लाभ प्राप्त कर लेते हैं। वहीं कुछ लोग मूर्खतावश सही मौके को समझ नहीं पाते और सफलता, सुख-समृद्धि से मुंह मोड़ लेते हैं।

एक लड़का था, नाम था उसका सुखीराम। वह बहुत परेशान और दुखी था। सुखीराम के पास कोई खुश होने की कोई वजह नहीं थी। वह शिवजी का भक्त था। उसने भगवान की भक्ति से अपनी किस्मत बदलने की सोचा। अब वह दिन-रात भगवान की भक्ति में डूबा रहता। कुछ ही समय में परमात्मा उसकी श्रद्धा से प्रसन्न हो गए और उसके समक्ष प्रकट हो गए।

भगवान को अपने सामने देखकर सुखीराम ने अपने दुखी जीवन की कहानी सुनाना शुरू कर दी। वह विनती करने लगा कि उसे सभी सुख और ऐश्वर्य के साथ-साथ सुंदर और गुणवान पत्नी भी मिल जाए। इस पर शिवजी ने उसे अपनी किस्मत बदलने के लिए तीन मौके देने की बात कही। शिवजी ने कहा कि कल तुम्हारे घर के सामने से तीन गाय निकलेगी। किसी भी एक गाय की पूंछ पकड़ कर उसके पीछे-पीछे चले जाना तुम्हें सभी सुख प्राप्त हो जाएंगे। ऐसा वर पाकर सुखीराम खुश होकर अपने घर लौट आया। वह सुबह उठकर अपने घर के बाहर गाय के निकलने की प्रतिक्षा करने लगा। थोड़ी ही देर में एक सुंदर सुजसज्जित गाय निकली, उसे देखकर सुखीराम सोचने लगा कि दो गाय और आना है, शायद अगली गाय और ज्यादा धन, वैभव और सुख-समृद्धि देने वाली हो। इतना सोचते-सोचते वह पहली गाय उसके सामने से निकल गई। दूसरी गाय आई, वह बहुत ही गंदगी लिए हुए थी, उसके पूरे शरीर पर गोबर लगा हुआ था। उसे देखकर सुखीराम सोचने लगा इतनी गंदी गाय के पीछे कैसे जा सकता हूं? और वह तीसरी गाय का इंतजार करने लगा। तीसरी गाय आई तो उसकी पूंछ ही नहीं थी। सुखीराम सिर पकड़कर बैठ गया और अपनी किस्मत को कोसने लगा।

कहानी का सारंश यही है कि सही मौका मिलते ही उसका लाभ उठाने में ही समझदारी है, अन्य अवसरों की प्रतिक्षा करने से अच्छा है जो भी मौका मिला है उसका फायदा उठा लेना चाहिए।

लालच बुरी बला............

मनुष्य के जीवन में कई ऐसे अवसर आते हैं जब उसे तुरंत निर्णय लेने पड़ते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि वह लालच में आकर गलत निर्णय ले लेता है जो परेशानी का कारण बन जाते हैं। इसलिए जब भी विपरीत समय में कोई निर्णय लेने का अवसर आए तो उसके उसके दूरगामी परिणाम के बारे में भी अवश्य सोचें।

सच्चे रहें....

हर व्यक्ति का कोई न कोई सपना अवश्य होता है। अपने सपने को हकीकत में बदलने या मंजिल को हांसिल करने के लिये इंसान हर कोशिश करता है। इंसान ऐसी कोई भी कसर या कमी छोडऩा नहीं चाहता जो आगे चलकर उसकी सफलता में रोड़ा बन जाए। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि संयोग या दुर्भाग्य से एक के बाद एक कई रुकावटें या बाधाएं आती ही जाती हैं। यहां तक कि अच्छे काम को करने में तो और भी ज्यादा रुकावटे आती हैं। लेकिन इंसान यदि सच्चा है और भगवान की नजरों में योग्य है तो उस इंसान की सारी बाधाएं या कठिनाइयां अपने आप ही दूर हो जाती हैं।