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Monday, May 30, 2011

दर्पण बनकर जियो.........

जीवन को, चेतना को, दर्पण बना लो। दर्पण सदा रिक्त होता है। उस पर स्थायी तस्वीर नहीं बनती। प्रतिबिम्ब हटते ही दर्पण शून्य हो जाता है। तुम्हें भी दर्पण की तरह व्यवहार करना है। सुबह सोकर उठो तो नई जिन्दगी लेकर उठो। जो कल तक तुम्हारा दुश्मन था, आज जब उससे मिले तो मित्र की तरह मिलो, ऐसे मिलो जैसे तुम्हारे बचपन का मित्र मिल गया हो। तुम्हारा अपना आत्मीय मिल गया हो। कल जो हुआ था, उसे आज याद मत करो। हर सुबह नया जीवन होता है, लेकिन मन नया नहीं होता, और मैं तुम्हें सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं कि मन भी नया होना चाहिए। तो मन को दर्पण बना लो। अभी तो तुम कैमरे की तरह जी रहे हो। कैमरे की फिल्म प्रतिबिम्ब को पकड़ लेती है, छोड़ती नहीं है। तो समझे, कैमरा नहीं, दर्पण बनकर जियो, और दर्पण शब्द ही कह रहा है – दर्प–ण अर्थात् जिसमें दर्प (अहंकार) नहीं है, वही दर्पण बन सकता है।

जंगल राज ..........

एक नन्हा मेमना

और उसकी माँ बकरी,

जा रहे थे जंगल में

राह थी संकरी।

अचानक सामने से आ गया एक शेर,

लेकिन अब तो

हो चुकी थी बहुत देर।

भागने का नहीं था कोई भी रास्ता,

बकरी और मेमने की हालत खस्ता।

उधर शेर के कदम धरती नापें,

इधर ये दोनों थर-थर कापें।

अब तो शेर आ गया एकदम सामने,

बकरी लगी जैसे-जैसे

बच्चे को थामने।

छिटककर बोला बकरी का बच्चा-

शेर अंकल!

क्या तुम हमें खा जाओगे

एकदम कच्चा?

शेर मुस्कुराया,

उसने अपना भारी पंजा

मेमने के सिर पर फिराया।

बोला-

हे बकरी - कुल गौरव,

आयुष्मान भव!

दीर्घायु भव!

चिरायु भव!

कर कलरव!

हो उत्सव!

अच्छा बकरी मैया नमस्ते!

इतना कहकर शेर कर गया प्रस्थान,

बकरी हैरान-

चुनाव आनेवाला है।


धर्म क्वांटिटी नहीं, क्वालिटी मांगता है........

धर्म क्वांटिटी नहीं, क्वालिटी मांगता है। धर्म का क्वांटिटी से, संख्या से कोई सम्बन्ध नहीं है, धर्म का क्वालिटी से, गुणों से सम्बन्ध है। धर्म कहता है, जो दो रुपये चुराये वह भी चोर है और दो लाख रुपये चुराये, वह भी चोर है। चोरी छोटी–बड़ी हो सकती है लेकिन चोरी तो चोरी है, धर्म की अदालत में दोनों समान दण्ड के पात्र हैं। लेकिन तुम्हारी अदालत में दोनों की सजा भी अलग–अलग होगी। अदालत शब्द का अर्थ है :

अ आओ,

दा देओ,

ल लड़ों

और

त तबाह हो जाओ।

अर्थ हुआ आओ, देओ, लड़ो और तबाह हो जाओ।

अदालत ने बिना तबाह हुए आज तक कौन लौटा है।

अन्त:करण सबसे बड़ी अदालत है,

अन्त:करण की अदालत को साक्षी मानकर जीना है।

पाप मन के भीतर की बात है और अपराध मन के बाहर की बात है। मन में किसी की हत्या कर विचार उठा, यह पाप है और मन के विचार को शरीर से क्रियान्वित कर दिया, किसी की हत्या कर दी, यह अपराध है। अदालत पापी को नहीं पकड़ती। वह अपराधी को पकड़ती है। पाप जब अपराध बन जाता है, तब कानून तुम्हें पकड़ता है। लेकिन प्रभु की अदालत में, धर्म की अदालत में पाप भी अपराध है अपराध भी पाप है।

क्या हो शिक्षा का उद्देश्य.............

आज शिक्षा का उद्देश्य केवल आजीविका का साधन रह गया है।

शिक्षा केवल आजीविका का साधन नहीं, जीवन की साधना भी है।

मनुष्य जब इस सृष्टि में जनम लेता है, तो पूर्ण रूप से मनुष्य नहीं होता।

जब तक मानव– चेतना में सत्संस्कारों का रोपण नहीं होगा, तब तक वह पूर्ण मनुष्यता नहीं पा सकता।

अच्छी शिक्षा व अच्छे संस्कारों से ही आदमी पूर्ण होता है।

शिक्षा वहीं परिपूर्ण होती है जो जीवन में उदात्त विचार, सुसंस्कार तथा जीवन जीने की कला सिखाती हो।

हमें नई पीढ़ी को, उसके परिवार, समाज, धर्म व राष्ट्र के प्रति क्या कर्त्तव्य है, इसका बोध कराना है।

आज स्थिति यह है कि एक बूढ़ा बाप अपने चार बच्चों की परवरिश तो कर सकता है, लेकिन चार बेटे मिलकर भी अपने बूढ़े मां–बाप की परवरिश नहीं कर पाते हैं।

याद रखना– जो अपने बूढ़े मां–बाप का नहीं हो सका, वह परमात्मा का हो जाए, असंभव है।


जो सुख समर्पण में है, वह अकड़ने में नहीं है............

जो सुख समर्पण में है, वह अकड़ने में नहीं है। जो अकड़ता है, यमराज (मौत) उसे जल्दी पकड़ता है। अहंकारी अल्पजीवी होता है, कभी ख्याल किया, तुम्हारे मुख में जो जीभ है, वह जन्म से आती है और मृत्यु तक साथ रहती है, लेकिन दांत जन्म के कई महीनों बाद आते हैं और बुढ़ापे में मृत्यु से पूर्व ही चले जाते हैं, टूट जाते हैं। इसका क्या कारण है? कारण स्पष्ट है– दांत कठोर होते हैं और कठोरता स्वयं के बिखराव का कारण है। जो कठोर होगा वह जल्दी मिटेगा। जीभ मृदु होती है और मृदुता अपने अस्तित्व के ठहराव का कारण है। जो मृदु होगा, उसे मौत कभी नहीं मिटाएगी। वह देर–सबेर मरेगा तो, लेकिन वह मर कर भी अमर हो जाएगा।

क्रोध तात्कालिक पागलपन है............

क्रोध तात्कालिक पागलपन है। क्रोध अहंकार के पीछे चलता है।

क्रोध और अहंकार सगे भाई हैं।

जिनसे तुम आदर की अपेक्षा करते हो यदि उनसे आदर नहीं मिलता तो तुम्हें क्रोध आ जाता है।

जिनसे तुम प्रेम मांगते हो, प्रेम की, फूलों की आकांक्षा रखते हो, यदि वे घृणा और कांटे थमा देते हैं तो तुम क्रोधित हो जाते हो।

अपेक्षा की उपेक्षा ही क्रोध है। जब–जब अपेक्षा की उपेक्षा होगी, तब–तब तुम्हें क्रोध अवश्य आएगा।

किसी से सम्मान की, प्रेम की, फूलों की अपेक्षा ही मत रखों तो उपेक्षा कौन कर सकता है

और जब उपेक्षा नहीं होगी तो क्रोध स्वत: ही नि:शेष हो जाएगा।

जरा सोचिये .........

जो काम आंखों के इशारे से हो सकता है, उसे हाथ के इशारे से कराना नादानी है

और जो काम हाथ के इशारे से हो सकता हो, उसे मुख से बोलकर कराना नादानी है।

जो काम धीरे से बोलकर हो सकता है, उसे क्रोध से चिल्लाकर कराना नादानी है।

इसी प्रकार जो काम हल्के से क्रोध के अभिनय से हो सकता है, उसे अधिकार के बलबूते हल करना पागलपन नहीं तो फिर क्या है?

और अभी तुम यही कर रहे हो, सारी दुनिया यही कर रही है।

यही एकमात्र कारण है कि संसार में इतनी वैमनस्यता, बिखराव, संघर्ष, दु:ख पनप रहे हैं।

किसी को जीतना है तो तलवार से नहीं, प्यार से जीतो, क्रोध से नहीं, क्षमा से जीतो।

यदि सामने वाला उग्र– स्वभावी है, प्रचंड–प्रकृति है, यदि वह आग है, आग का गोला बनता है

तो तुम्हें पानी बन जाना चाहिए, क्योंकि पानी ही आग पर काबू पा सकता है।

आग का समाधान जल है और क्रोध का समाधान क्षमा है

सुख के साथ शांति होने पर सफलता स्थायी होगी...........

सुख अर्जित करना एक बड़ी सफलता माना जा रहा है।

पढ़ा-लिखा हो या बिना पढ़ा-लिखा,

आजकल इतना सक्षम और जुगाड़ू तो आदमी होता ही जा रहा है

कि इधर-उधर से सुख उठा ही लेता है।

"""""""""सुख की सामान्य परिभाषा है कि जो हमारे अनुकूल हो, वह सुख तथा विपरीत हो वह दुख"""""""""

सुख अर्जित करना बहुत कठिन काम नहीं है।

परंतु सवाल यह है कि शांति कहां से लाएंगे?

यह तो आदमी को खुद अर्जित करनी पड़ेगी। सुख के साथ जब शांति होगी,

तभी सफलता सही और स्थायी होगी तथा जीवन सुंदर होगा।

साधु और संत ..........


हमारे देश में कुछ वेष बड़े सुरक्षित माने जाते हैं।
दुनियाभर के गलत काम करो और इस वेष की खोल में घुस जाओ।
आज कल कुछ साधु संत होने का ढोंग करते है,
दरअसल साधु और संत अलग अलग हैं.....
साधु एक आचरण है, संत व्यवहार है।
साधु तैयारी है, संत पहुंचना है।
साधु शैली है, संत स्वभाव है।
साधु आरंभ है, संत अन्त है।
साधु हर कोई हो सकता है, संत कोई-कोई होता है।
साधु बाहर का मामला है, संत भीतर की बात है।
और सबसे बड़ी बात
साधु वो जो परमात्मा को चाहे और संत वो जिसे परमात्मा चाहे।
यह बड़ा अंतर है साधु और संत में,

परमात्मा और धैर्य....

इस समय हर आदमी बहुत तेजी में है।प्रतीक्षा कोई नहीं करना चाहता।

जल्दी के चक्कर में इंसानियत ने एक बात खो दी है और वह है धैर्य।

परमात्मा उन्हें ही मिलता है, जिनके पास धीरज है।

जिनकी जीवन यात्रा में धैर्य होता है, वे थोड़ा अपने आसपास भी देख पाते हैं।

जो जल्दी में हैं, उन्हें इतनी फुर्सत कहां कि वे अपने आसपास के लोगों को देख सकें।

पराए तो दूर, ये जल्दीबाजी वाले अपने सगे लोगों पर भी ध्यान नहीं दे पाते।

यही जल्दी इन्हें अपने लोगों के लिए समय के मामले में कंगाल बना देती है।

जीवन में धैर्य हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि हम अपनी सेवा और सहयोग से दूसरों को सुखी बनाएं।

जब दूसरे विपत्ति में हों तो उन्हें देख हमारा धीरजभरा स्वभाव हमें प्रेरित करता है कि हम उनकी मदद करें।

धैर्य का एक और गुण है कि दूसरों को सुखी देख वह हमारे भीतर प्रसन्नता भरता है।

वरना आजकल लोग अपने दुख से कम, बल्कि दूसरों के सुख से ज्यादा दुखी रहते हैं।

अधीरता के कारण लोगों की प्रतीक्षा की क्षमता ही खत्म हो गई है।

ऐसे में संसार तो मिल जाएगा, पर परमात्मा नहीं और बिना परमात्मा के शांति कैसे मिलेगी?

भगवान हर घड़ी हमारी ओर हाथ बढ़ाता है,

लेकिन हम देख नहीं पाते, क्योंकि जल्दी में हैं।

बाहर की गति तो रहे, पर भीतर का धैर्य बना रहे तो

दुनिया भी मिलेगी और दुनिया बनाने वाला भी नहीं छूटेगा।

जब भी जीवन में निराशा आए, अपने पुराने सड़े-गले विचारों को त्यागें..

अनेक तरह से बलशाली लोग भी मानसिक दुर्बलता के शिकार पाए जाते हैं।

जब भी जीवन में निराशा आए, अपने पुराने सड़े-गले विचारों को त्यागें।

विचार भी लगातार बने रहने से बासी हो जाते हैं, इन्हें भी मांजना पड़ता है,

इनकी भी साफ-सफाई करनी पड़ती है। कुछ समय स्वयं को विचारशून्य रखना भी विचारों की साफ-सफाई है।

यह शून्यता गलत विचारों को गलाती है।

इसके बाद आने वाले विचार दिव्य और स्पष्ट होंगे।

विचारशून्य होने की स्थिति का नाम ध्यान है।

कुछ लोग काफी समय ध्यान की विधि ढूंढ़ने में लगा देते हैं।

कौन-सी विधि से ध्यान करें, इसमें ही उनके जीवन का बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है।

थोड़ा समझें कि ध्यान की कोई विधि नहीं होती।

ध्यान एक ऐसा होश है, जो अपनी शून्यता से विचारों को धो देता है।

ताजे और प्रगतिशील विचार रोम-रोम में समाते हैं और उनके नियमित उपयोग की कला भी आ जाती है।

हर विधि एक रास्ता है, पर बाधा को हटाने के लिए उसे ही ध्यान मान लेना गलत होगा।

पीड़ादायक स्मृतियों को भुला देना बुद्धिमानी है.....

पीड़ादायक स्मृतियों को भुला देना बुद्धिमानी है और अच्छी बातों को याद रखना समझदारी,

लेकिन यदि अच्छी बातें सही समय पर आचरण में न उतारी गईं तो ये भी बोझ बन जाएंगी।

कुछ घटनाएं जीवन में ऐसी होती रहती हैं कि जिन्हें यदि नहीं भुलाया गया तो वे हमें मानसिक उधेड़-बुन में पटक देती हैं

और एक घटना फिर कई विपरीत घटनाओं को जन्म देने वाली बन जाती है।

इसलिए अप्रिय प्रसंगों को तत्काल विस्मृत करें। इनको सतत याद रखने का नाम है चिंता।

चिंता करने वाला आदमी कुछ समय बाद अवसाद में जरूर डूबेगा।

प्रिय और अच्छी स्थितियां सदुपयोग के लिए होती हैं। अपने शुभ कर्मो को एक जगह अपनी स्मृति में स्टॉक की तरह रखना चाहिए

और उनका उपयोग भविष्य में करते रहना चाहिए।

चार तरीके से अपने शुभ कर्मो को दूसरों के प्रति उपयोग करें।

पहला, अपने से छोटी उम्र के लोगों से अपने शुभ कर्म जोड़ें, इससे स्नेह बढ़ेगा।

दूसरा,अपने दोस्त, पति-पत्नी से शुभ कर्म जुड़कर प्रेम का रूप ले लेते हैं।

तीसरा तरीका है अपने से बड़े यानी माता-पिता, गुरु तथा वृद्धजन के प्रति जुड़े हुए शुभ कर्म श्रद्धा का रूप ले लेते हैं।

जैसे ही हमारे शुभ कर्म चौथे चरण में परमात्मा के प्रति जुड़ते हैं, बस फिर इसे भक्ति कहा जाएगा।

इसलिए अशुभ, अप्रिय और अनुचित घटे हुए को भूल जाएं,

शुभ को याद रखते हुए उनका इन चार चरणों में सदुपयोग करें। इसका सीधा असर आपके स्वास्थ्य पर पड़ेगा।

सियासत ...........

मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है

सियासत, दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है

तवायफ़ की तरह अपने ग़लत कामों के चेहरे पर

हुकूमत, मंदिरों-मस्जिद का पर्दा डाल देती है

हुकूमत मुँह-भराई के हुनर से ख़ूब वाक़िफ़ है

ये हर कुत्ते आगे शाही टुकड़ा डाल देती है

कहाँ की यात्रा कैसा सफ़र कैसा जुदा होना

किसी की चाह पैरों में दुपट्टा डाल देती है

भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में

ग़रीबी कान छिदवाती है,और तिनका डाल देती है

अजीब खेल है दुनिया तेरी सियासत का............

मैं खुल के हँस तो रहा हूँ गरीब होते हुए

वो मुस्कुरा भी न पाया अमीर होते हुए

अजीब खेल है दुनिया तेरी सियासत का

मैं पैदलों से पिटा हूँ वज़ीर होते हुए

ये ख़ुशी की धुन का ख़याल रखते हैं...

परिंदे चुप नहीं रहते बंदी होते हुए

नये तरीक़े से मैंने ये जंग जीती है

कमान फेंक दी तरकश में तीर होते हुए

जिसे भी चाहिए मुझसे दुआएँ ले जाए

लुटा रहा हूँ मैं दौलत, गरीब होते...

बदनाम हुआ बेचारा झूठ...........

उसने मुझसे बोला झूठ

अपना पहला पहला झूठ

ताकतवर था खूब मगर

फिर भी सच से हारा झूठ

अब मैं तुझको भूल गया

आधा सच है आधा झूठ

सच से आगे निकल गया

गूंगा, बहरा, अंधा झूठ

कुछ तो सच के साथ रहे

ज्यादातर को भाया झूठ

जग में खोटे सिक्के सा

चलता खुल्लम खुल्ला झूठ

शक्ल हमेशा सच की एक

पल पल रूप बदलता झूठ

इस दुनिया की मंडी में

सच से महंगा बिकता झूठ

सच से बढ़ कर लगा मुझे

उसका प्यारा प्यारा झूठ

माँ से बढ़कर पापा हैं

कितना भोला भाला झूठ

सच ने क्या कम घर तोड़े

बदनाम हुआ बेचारा झूठ...........

याद है वह गुजरा ज़माना.............1984

हर शख्श है लुटा- लुटा हर शह तबाह है

ये शहर कोई शहर है या क़त्ल-गाह है

जिसने हमारे ख़ून से खेली हैं होलियाँ

जज का फ़ैसला है कि वो बेगुनाह है

ये हो रहा है आज जो मज़हब के नाम पर

मज़हब अगर यही है तो मज़हब भी गुनाह है

दहशतज़दा परिंदा (खुदा) जो बैठा है डाल पर

यह सारे हादसों का अकेला गवाह है

मैंने जो भी कहा, सब वो सच कहा

ये बात दूसरी है कि सच ये सियाह (काला) है

ये मेरे देश की सियासत है यहाँ आजकल

इंसानियत की बात भी करना गुनाह है............

अहंकार ..................

अच्छी बातें जहां कहीं भी मिलें, स्वीकार करके अपने भीतर उतारनी चाहिए।

लेकिन यह भी ध्यान रखा जाए कि अच्छाई और शांति हमारे भीतर से फिर बाहर निकले

और समूचे समाज में फैले।

यह जब दो-तरफा होगा, तभी इसके परिणाम सही मिलेंगे।

यदि अपने व्यक्तित्व को संपूर्ण बनाना है तो अपने आध्यात्मिक पक्ष को विकसित करना पड़ेगा

और उससे परिचित होना होगा।

इसमें एक बाधा है अहंकार।

अहंकार हमें तोड़ता है, जोड़ता नहीं।

अहंकार को मिटाने से अच्छा है इसे समझा जाए।

बिना इसे समझे यह मिटेगा नहीं।

अहंकार के अंधकार को हटाने के लिए समझ एक दीए का काम करेगी।

अहंकार हटा और हमें अपने भीतर उतरने में सुविधा हुई।

भीतर उतरते ही हमारा सबसे पहला जुड़ाव परमात्मा से होगा।

प्रभु में प्रेम है,

प्रकाश है,

शांति है,

आनंद है और

चेतन है।

यही सब हमारे भीतर आएगा और हमारे व्यक्तित्व के टूटे हुए हिस्से फिर जुड़ जाएंगे।

संत................

सभी चाहते हैं कि स्वर्ग मिल जाए या स्वर्ग जैसी जिंदगी हो जाए।

जिस ढंग का जीवन हम जीते हैं, उसी ढंग से स्वर्ग और नर्क अपने आसपास बना लेते हैं।

जो स्वर्ग की खोज में हों, उन्हें जीवन में गुरु और संत का महत्व समझना चाहिए।

जितनी देर हम संतों के साथ बैठेंगे, समझ लीजिए स्वर्ग के निकट हैं या स्वर्ग में ही हैं।

संत के तीन रूप माने गए हैं-

१..पहला सूरज हैं, जो सोए हैं उन्हें जगाते हैं।

२..दूसरा, वे हवा की भांति हैं,सोए हुए को हिलाने के लिए हवा की भूमिका में रहते हैं

और यदि आदमी तब भी न उठे

३..तीसरा संत पंछी की तरह शोर करेंगे कि अब तो उठ जाओ।

सूर्य, हवा और पंछी तीनों का कोई स्थायी ठिकाना नहीं होता।

संत...........

जो भूले पड़े हैं, उन्हें भीतर स्मरण कराते हैं।

संत के सान्निध्य में समझ में आ जाता है कि स्वर्ग का अर्थ क्या है- जहां आप सहमत होना सीखें, वहीं स्वर्ग है।

जीवन सुंदर तब है, जब सबकुछ स्वीकार्य है और उसी के साथ शांति भी जीवन में उतर जाए।

इसलिए स्वर्ग प्राप्ति के लिए संतों का सान्निध्य बनाए रखें।

सही मार्केटिंग हो जाए तो लोग मौत से भी प्यार करेंगे............

यह जीवन बहुत थोड़ा है।ना जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए।

यहां मौत की लंबी लाइन लगी है। वह तो हमारी बारी नहीं आई है इस कारण हम जिंदा हैं, वरना यह जिंदगी भी एक भ्रम है।

एक आदमी कहीं जा रहा था और गिर गया। लोगों ने उसे देखा, वह मर गया था। कुछ लोग बोले- अरे यह तो मर गया।

वह तो गिरा जमी पर, लोग कहते हैं मर गया। मरा नहीं है, यह बेचारा सफर में था, आज अपने घर गया।

जन्म और मृत्यु दोनों भ्रामक शब्द हैं। व्यवहार में इनका गंभीरता से उपयोग होता है।

जैसे सूर्य का उदय और अस्त व्यवहार में दिखता है। यदि कोई सूर्य से पूछे तो वह कहेगा - मैं तो सदैव से हूं।

न उदय हुआ हूं, न अस्त। भारत में उदय हूं तो अमेरिका में अस्त। यह भ्रम है।

इसी तरह जीवन और मृत्यु व्यवहार में तो सच लगते हैं, पर हैं भ्रम।

जीव केवल शरीर को छोड़ता है, फिर उसकी मृत्यु कैसी?

जीव मरता है तो व्यवहार में हम रोते हैं उसकी मृत्यु पर।

उस समय वह कहीं और जन्म ले रहा होता है और वहां लोग खुशी मना रहे होते हैं।

सही तरीके से मृत्यु का विज्ञापन करें तो उससे भी मिलने की इच्छा होगी।

यदि मौत की सही मार्केटिंग हो जाए तो लोग मौत से प्यार करने लगेंगे।

मौत का सामना करने का आसान तरीका है जरा मुस्कराइए.............

बुजुर्गों की हमें जरूरत है......................

बुजुर्गों के रिटायर होने के बाद हम ऐसा मान लेते हैं

कि वे दुनिया के लिए बेकार हो गए हैं.

हमारे दिलों में ही नहीं हमारे घरों में भी उनके लिए जगह कम पड़ने लगती है.

मगर हम यह भूल जाते हैं कि उन्हें हमारी नहीं हमें उनकी जरूरत है.

हम उनके मुकाबले कहीं ज्यादा पैसे कमा सकते हैं,

ढ़ेर सारी सुविधाएं जुटा सकते हैं. दुनिया की तमाम चीजें खरीद सकते हैं

मगर घर में बुजुर्गों की उपस्थिति से मिलने वाला प्यार, संस्कार और अनुभव नहीं पा सकते.

उनकी नसीहतें हमें बेकार का उपदेश लगती हैं.

मगर हम उनमें छुपे प्यार और भावनाओं को नहीं समझ पा रहे हैं.

उनके नहीं होने से हमारे घरों से विनम्रता और संस्कार गायब होते जा रहे हैं.

उनके न होने से हम भूल गए हैं कि परिवार वाले घर में एक साथ बैठकर खाना खाते हैं.

हमें याद नहीं है कि घर में त्योहारों पर बड़े बच्चों के लिए मिठाइयां लाते हैं.

उनके न होने से हम छोटी-छोटी खुशियां बांटना भूल गए हैं.

हम अपने बच्चे की परवरिश कामवाली से करवाते हैं

और सोचते हैं कि बच्चों में अच्छे संस्कार पनपेंगे. ऐसा कैसे होगा?

कामवाली बाई के लिए आपके बच्चे की परवरिश सिर्फ एक काम है

और उसमें भावनायें जुड़ी नहीं होतीं.

लेकिन आपके घर के बुजुर्गों के लिए यह अपने परिवार और वंश की परंपराओं और संस्कारों को आगे बढ़ाने का अहम दायित्व है.

ऐसे में जब हम लोग अपने बच्चों में कम होती विनम्रता, संस्कार और सभ्यता की दुहाई दे रहे हैं

तो एक बार सोचना चाहिए कि हमें उनकी जरूरत है, उन्हें हमारी नहीं.......

शुरुआत तो करिए...........

‘हम चलने के पहले ही अपनी बैठी हुई असफलता का दोष तीन चीजों में आरोपित कर देते हैं - भाग्य, ईश्वर और दुनिया।’

जो लोग दोष को स्वयं में ढूंढ़ने में सक्षम होंगे, वे सफलता के दृश्य देख सकेंगे।

बिल्कुल जरूरी नहीं है कि जो चल पड़ा, वह पहुंच ही जाएगा।

बोया हुआ बीज जरूरी नहीं है कि वृक्ष बन ही जाए।

जिसने कदम उठाया, उसे मंजिल मिलेगी ही।

यदि आगे नहीं बढ़ता है तो यह उसकी मर्जी है।

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह असमर्थ है।

उठे हुए कदम की बूंद में सफलता का सागर छिपा है।

इसलिए कदम जरूर उठाइए।

कहां, कब और कैसे पहुंचेंगे, इसकी फिक्र छोड़िए।

शुरुआत तो करिए...........

क्या लिखूँ......................................

क्या लिखूँ......................................

कुछ जीत लिखू या हार लिखूँ

या दिल का सारा प्यार लिखूँ

कुछ अपनो के ज़ाज़बात लिखू

सपनों की सौगात लिखूँ

मै खिलता सुरज आज लिखू या चेहरा चाँद गुलाब लिखूँ

वो डूबते सुरज को देखूँ या उगते फूल की सांस लिखूँ

वो पल मे बीते साल लिखू या सादियो लम्बी रात लिखूँ

मै तुमको अपने पास लिखू या दूरी का ऐहसास लिखूँ

मै अन्धे के दिन मै झाँकू या आँन्खो की मै रात लिखूँ

बचपन मे बच्चौ से खेलूँ या जीवन की ढलती शाम लिखूँ

सागर सा गहरा हो जाॐ या अम्बर का विस्तार लिखूँ

वो पहली -पाहली प्यास लिखूँ या निश्छल पहला प्यार लिखूँ

सावन कि बारिश मेँ भीगूँ या आन्खो की मै बरसात लिखूँ

मै हिन्दू मुस्लिम हो जाऊ या बेबस ईन्सान लिखूँ

मै ऎक ही मजहब को जी लुँ या मजहब की आन्खे चार लिखूँ

कुछ जीत लिखू या हार लिखूँ

या दिल का सारा प्यार लिखूँ..............

हर बंदा इसे जरुर पढ़े.......

हर बंदा इसे जरुर पढ़े.......

कुछ दिन पहले की घटना है,

एक सज्जन की मृत्यु पर लोग एकत्र थे,गम का माहोल था अर्थी सज गई लोग उठाने को ही थे इतने में अचानक एक वकील साहब आये और कहने लगे अर्थी उठाने से पहले मरने वाले की वसीयत पढना है,लोगों के मना करने पर उन्होंने कहा मरने वाले की चाहत है की वसीयत यहीं पढ़ी जावे,

लोगों के बिच वसीयत पढ़ी जाने लगी जो इस प्रकार थी...........

मेरी वसीयत ध्यान से सुने,में अपनी कमाई हुई जायदाद जो की यह बड़ा मकान है इसका बंटवारा इस तरह करता हूँ....

इस मकान का ग्राउंड फ्लोर अपने सबसे छोटे बेटे के नाम करता हूँ जिसने इस घर के प्रति पूरी जिम्मेदारी रखी और बीमारी में मेरी सेवा की मेरी दवा दारू का इन्तेजाम किया,और घर का पूरा खर्चा आज भी उठाता है ,

इस मकान का फर्स्ट फ्लोर उससे बड़े बेटे के नाम करता हूँ जो की मेरी सेवा में लगा रहा और घर के प्रति भी जवाबदार रहा उसने अपनी बहन की शादी करने में मेरी मदद की,

इस मकान का सेकण्ड फ्लोर अपनी बेटी के नाम करता हूँ क्योंकि में जानता हूँ उसे अपनी बेटी की शादी के लिए पैसों की जरुरत है,

इस मकान का थर्ड फ्लोर अपनी बीबी के नाम करता हूँ मेरे बाद इस फ्लोर का वह जो चाहे करे.

इस मकान के ऊपर आसमान तक का हिस्सा (जिसकी ज़मीन नहीं हो,हवा में ) अपने सबसे बड़े बेटे के नाम करता हूँ जिसको मेने खूब पढाया लिखाया और उसे पढ़ाने की वजह से ही इस घर की आर्थिक स्थिति ख़राब हुई,उसने इस घर के प्रति कभी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया,और शादी करते ही अलग हो गया,कभी इस घर की तरफ मुड कर नहीं देखा,

मै समाज के सभी लोगों से गुजारिश करता हूँ की इस बड़े बेटे को मेरी अर्थी को हाथ न लगाने दिया जाये ताकि उसे और इस तरह के बेटों को शिक्षा मिले कि जो माँ बाप अपना पेट काट काट कर बच्चों को पालते है उनकी भी माँ बाप के प्रति कुछ जवाबदारी है,

सभी लोग सन्न थे,बड़ा बेटा निचे सर करके वहां से जा रहा था,और जो लोग वहां थे वो अपने गिरेबान मै झाँक रहे थे.

मै आप सभी लोगों से पूछना चाहता हूँ,क्या इतना कठोर निर्णय सही है?क्या इससे समाज कुछ सीख लेगा?

मेरा अपना विचार है कि यह बिलकुल सही निर्णय था..............................

अच्छे दिन फिर से आयेंगे..................

मन में जैसे भाव रहेंगे वैसे चित्र उभर आयेंगे

जीवन की बाजी हारी तो दुनिया में अँधियारा होगा

फिर मत कहना, अंधियारे तो अपनी ताकत दिख लायेंगे.

बेशक पतझड़ आ जाता है पत्ते मुरझा कर गिर जाते

फिर भी वृक्ष खड़ा रहता है क्योंकि आशा लिए हुए है

कोमल पत्ते फिर आयेंगे.

बेशक खूब बवंडर आयें, बेशक धरती भी हिल जाये

फिर भी जीवन की बगियाँ में

सुमन बहुत से खिल जायेंगे.

आशा और निराशाओं के जीवन में कितने क्षण आते

दुःख और सुख की वे दोनों ही रेखाएं अंकित कर जाते

फिर भी तो आशा रहती है,अच्छे दिन फिर से आयेंगे..................

अच्छे दिन फिर से आयेंगे..................

मन में जैसे भाव रहेंगे वैसे चित्र उभर आयेंगे

जीवन की बाजी हारी तो दुनिया में अँधियारा होगा

फिर मत कहना, अंधियारे तो अपनी ताकत दिख लायेंगे.

बेशक पतझड़ आ जाता है पत्ते मुरझा कर गिर जाते

फिर भी वृक्ष खड़ा रहता है क्योंकि आशा लिए हुए है

कोमल पत्ते फिर आयेंगे.

बेशक खूब बवंडर आयें, बेशक धरती भी हिल जाये

फिर भी जीवन की बगियाँ में

सुमन बहुत से खिल जायेंगे.

आशा और निराशाओं के जीवन में कितने क्षण आते

दुःख और सुख की वे दोनों ही रेखाएं अंकित कर जाते

फिर भी तो आशा रहती है,अच्छे दिन फिर से आयेंगे..................

Tuesday, May 3, 2011

चिंता और चिता ............

भगवान के मन में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता है। अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं है। भगवान तो भाव के भूखे हैं।
संत उसे कहते हैं जो सदैव दूसरों का कल्याण करें। उनका कोई मित्र अथवा शत्रु नहीं होता।
हमें चिंता नहीं करनी चाहिए ।
चिंता और चिता दोनों का कार्य है जलाना,
फर्क सिर्फ इतना है कि
चिंता जिंदा जलाती है और चिता मरने के बाद जलाती है।

गुरबानी भी कहती है चिंता तां की कीजिये जो अनहोनी होय


चिंता और चिता में सिर्फ एक बिंदु का फर्क होता है, अन्यथा दोनों समान हैं।
चिंता ही चिता का कारण बन जाती है।
इसलिए जीवन से इस चिंता रूपी चिता को विदा करके आप अपने मस्तिष्क को शांत रख सकते हैं।
सच तो यह है कि यदि आपका दिमाग कूल रहेगा, तो ऐसी स्थिति में आप अपना काम ज्यादा मन लगाकर, अच्छी तरह से पूरा कर सकते हैं।
वैसे यह भी सच है कि जीवन को पूरी तरह से चिंता मुक्त नहीं किया जा सकता। हां, इस पर काफी हद तक नियंत्रण जरूर पाया जा सकता है।

व्यक्ति काम से नहीं मरता, बल्कि चिंता उसे मार डालती है। दरअसल, हमें जितना मिलता है, हम उससे ज्यादा की आस में और, और की रट लगाए रहते हैं। इसीलिए एक दिन हम अपने अपने सुख और शांति से भी हाथ धो बैठते हैं। अक्सर हमारे पास जो होता है, हम उससे कभी भी संतुष्ट नहीं होते। दूसरी ओर, जो दूसरे के पास दिखता है, उससे ईष्र्या करने लगते हैं। हम इसी आशा में घुलते, पिसते व परेशान होते रहते हैं कि हमें और अधिक मिले। किसी खास दोस्त से ज्यादा मिले। इसलिए यदि हम चिंता न करके चिंतन-मनन में अपना वक्त बिताएं, तो हमारी नैया पार लग सकती है।