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Tuesday, May 3, 2011

चिंता और चिता ............

भगवान के मन में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता है। अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं है। भगवान तो भाव के भूखे हैं।
संत उसे कहते हैं जो सदैव दूसरों का कल्याण करें। उनका कोई मित्र अथवा शत्रु नहीं होता।
हमें चिंता नहीं करनी चाहिए ।
चिंता और चिता दोनों का कार्य है जलाना,
फर्क सिर्फ इतना है कि
चिंता जिंदा जलाती है और चिता मरने के बाद जलाती है।

गुरबानी भी कहती है चिंता तां की कीजिये जो अनहोनी होय


चिंता और चिता में सिर्फ एक बिंदु का फर्क होता है, अन्यथा दोनों समान हैं।
चिंता ही चिता का कारण बन जाती है।
इसलिए जीवन से इस चिंता रूपी चिता को विदा करके आप अपने मस्तिष्क को शांत रख सकते हैं।
सच तो यह है कि यदि आपका दिमाग कूल रहेगा, तो ऐसी स्थिति में आप अपना काम ज्यादा मन लगाकर, अच्छी तरह से पूरा कर सकते हैं।
वैसे यह भी सच है कि जीवन को पूरी तरह से चिंता मुक्त नहीं किया जा सकता। हां, इस पर काफी हद तक नियंत्रण जरूर पाया जा सकता है।

व्यक्ति काम से नहीं मरता, बल्कि चिंता उसे मार डालती है। दरअसल, हमें जितना मिलता है, हम उससे ज्यादा की आस में और, और की रट लगाए रहते हैं। इसीलिए एक दिन हम अपने अपने सुख और शांति से भी हाथ धो बैठते हैं। अक्सर हमारे पास जो होता है, हम उससे कभी भी संतुष्ट नहीं होते। दूसरी ओर, जो दूसरे के पास दिखता है, उससे ईष्र्या करने लगते हैं। हम इसी आशा में घुलते, पिसते व परेशान होते रहते हैं कि हमें और अधिक मिले। किसी खास दोस्त से ज्यादा मिले। इसलिए यदि हम चिंता न करके चिंतन-मनन में अपना वक्त बिताएं, तो हमारी नैया पार लग सकती है।

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