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Monday, May 30, 2011

याद है वह गुजरा ज़माना.............1984

हर शख्श है लुटा- लुटा हर शह तबाह है

ये शहर कोई शहर है या क़त्ल-गाह है

जिसने हमारे ख़ून से खेली हैं होलियाँ

जज का फ़ैसला है कि वो बेगुनाह है

ये हो रहा है आज जो मज़हब के नाम पर

मज़हब अगर यही है तो मज़हब भी गुनाह है

दहशतज़दा परिंदा (खुदा) जो बैठा है डाल पर

यह सारे हादसों का अकेला गवाह है

मैंने जो भी कहा, सब वो सच कहा

ये बात दूसरी है कि सच ये सियाह (काला) है

ये मेरे देश की सियासत है यहाँ आजकल

इंसानियत की बात भी करना गुनाह है............

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