Monday, May 30, 2011
दर्पण बनकर जियो.........
जीवन को, चेतना को, दर्पण बना लो। दर्पण सदा रिक्त होता है। उस पर स्थायी तस्वीर नहीं बनती। प्रतिबिम्ब हटते ही दर्पण शून्य हो जाता है। तुम्हें भी दर्पण की तरह व्यवहार करना है। सुबह सोकर उठो तो नई जिन्दगी लेकर उठो। जो कल तक तुम्हारा दुश्मन था, आज जब उससे मिले तो मित्र की तरह मिलो, ऐसे मिलो जैसे तुम्हारे बचपन का मित्र मिल गया हो। तुम्हारा अपना आत्मीय मिल गया हो। कल जो हुआ था, उसे आज याद मत करो। हर सुबह नया जीवन होता है, लेकिन मन नया नहीं होता, और मैं तुम्हें सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं कि मन भी नया होना चाहिए। तो मन को दर्पण बना लो। अभी तो तुम कैमरे की तरह जी रहे हो। कैमरे की फिल्म प्रतिबिम्ब को पकड़ लेती है, छोड़ती नहीं है। तो समझे, कैमरा नहीं, दर्पण बनकर जियो, और दर्पण शब्द ही कह रहा है – दर्प–ण अर्थात् जिसमें दर्प (अहंकार) नहीं है, वही दर्पण बन सकता है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment